सआदत हसन मंटो








खोल दो 


अमृतसर से स्पेशल ट्रेन दोपहर दो बजे चली और आठ घंटों के बाद मुगलपुरा पहुंची। रास्ते में कई आदमी मारे गए। अनेक जख्मी हुए और कुछ इधर-उधर भटक गए। 

सुबह दस बजे कैंप की ठंडी जमीन पर जब सिराजुद्दीन ने आंखें खोलीं और अपने चारों तरफ मर्दों , औरतों और बच्चों का एक उमड़ता समुद्र देखा तो उसकी सोचने-समझने की शक्तियां और भी बूढ़ी हो गईं। वह देर तक गंदले आसमान को टकटकी बांधे देखता रहा। यूं ते कैंप में शोर मचा हुआ था ,लेकिन बूढ़े सिराजुद्दीन के कान तो जैसे बंद थे। उसे कुछ सुनाई नहीं देता था। कोई उसे देखता तो यह ख्याल करता की वह किसी गहरी नींद में गर्क है ,मगर ऐसा नहीं था। उसके होशो-हवास गायब थे। उसका सारा अस्तित्व शून्य में लटका हुआ था। 

गंदले आसमान की तरफ बगैर किसी इरादे के देखते-देखते सिराजुद्दीन की निगाहें सूरज से टकराईं। तेज रोशनी उसके अस्तित्व की रग-रग में उतर गई और वह जाग उठा। ऊपर-तले उसके दिमाग में कई तस्वीरें दौड़ गईं-लूट ,आग , भागम-भाग , स्टेशन , गोलियां , रात और सकीना...सिराजुद्दीन एकदम उठ खड़ा हुआ और पागलों की तरह उसने चारों तरफ फैले हुए इनसानों के समुद्र को खंगालना शुरु कर दिया। पूरे तीन घंटे बाद वह ‘ सकीना-सकीना ’ पुकारता कैंप की खाक छानता रहा, मगर उसे अपनी जवान इकलौती बेटी का कोई पता न मिला। चारों तरफ एक धांधली-सी मची थी। कोई अपना बच्चा ढूंढ रहा था , कोई मां , कोई बीबी और कोई बेटी। सिराजुद्दीन थक-हारकर एक तरफ बैठ गया और मस्तिष्क पर जोर देकर सोचने लगा कि सकीना उससे कब और कहां अलग हुई ,लेकिन सोचते-सोचते उसका दिमाग सकीना की मां की लाश पर जम जाता , जिसकी सारी अंतड़ियां बाहर निकली हुईं थीं। उससे आगे वह और कुछ न सोच सका। 

सकीना की मां मर चुकी थी। उसने सिराजुद्दीन की आंखों के सामने दम तोड़ा था , लेकिन सकीना कहां थी , जिसके विषय में मां ने मरते हुए कहा था , "मुझे छोड़ दो और सकीना को लेकर जल्दी से यहां से भाग जाओ।" 

सकीना उसके साथ ही थी। दोनों नंगे पांव भाग रहे थे। सकीना का दुप्पटा गिर पड़ा था। उसे उठाने के लिए उसने रुकना चाहा था। सकीना ने चिल्लाकर कहा था "अब्बाजी छोड़िए!" लेकिन उसने दुप्पटा उठा लिया था।....यह सोचते-सोचते उसने अपने कोट की उभरी हुई जेब का तरफ देखा और उसमें हाथ डालकर एक कपड़ा निकाला , सकीना का वही दुप्पटा था ,लेकिन सकीना कहां थी ?

सिराजुद्दीन ने अपने थके हुए दिमाग पर बहुत जोर दिया , मगर वह किसी नतीजे पर न पहुंच सका। क्या वह सकीना को अपने साथ स्टेशन तक ले आया था ?- क्या वह उसके साथ ही गाड़ी में सवार थी ?- रास्ते में जब गाड़ी रोकी गई थी और बलवाई अंदर घुस आए थे तो क्या वह बेहोश हो गया था ,जो वे सकीना को उठा कर ले गए ?

सिराजुद्दीन के दिमाग में सवाल ही सवाल थे , जवाब कोई भी नहीं था। उसको हमदर्दी की जरूरत थी , लेकिन चारों तरफ जितने भी इनसान फंसे हुए थे , सबको हमदर्दी की जरूरत थी। सिराजुद्दीन ने रोना चाहा , मगर आंखों ने उसकी मदद न की। आंसू न जाने कहां गायब हो गए थे। 

छह रोज बाद जब होश-व-हवास किसी कदर दुरुसत हुए तो सिराजुद्दीन उन लोगों से मिला जो उसकी मदद करने को तैयार थे। आठ नौजवान थे ,जिनक े पास लाठियां थीं ,बंदूकें थीं। सिराजुद्दीन ने उनको लाख-लाख दुआऐं दीं और सकीना का हुलिया बताया , गोरा रंग है और बहुत खूबसूरत है... मुझ पर नहीं अपनी मां पर थी...उम्र सत्रह वर्ष के करीब है।...आंखें बड़ी-बड़ी...बाल स्याह ,दाहिने गाल पर मोटा सा तिल...मेरी इकलौती लड़की है। ढूंढ लाओ , खुदा तुम्हारा भला करेगा। 


रजाकार नौजवानों ने बड़े जज्बे के साथ बूढे ¸ सिराजुद्दीन को यकीन दिलाया कि अगर उसकी बेटी जिंदा हुई तो चंद ही दिनों में उसके पास होगी। 

आठों नौजवानों ने कोशिश की। जान हथेली पर रखकर वे अमृतसर गए। कई मर्दों और कई बच्चों को निकाल-निकालकर उन्होंने सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया। दस रोज गुजर गए , मगर उन्हें सकीना न मिली। 

एक रोज इसी सेवा के लिए लारी पर अमृतसर जा रहे थे कि छहररा के पास सड़क पर उन्हें एक लड़की दिखाई दी। लारी की आवाज सुनकर वह बिदकी और भागना शुरू कर दिया। रजाकारों ने मोटर रोकी और सबके-सब उसके पीछे भागे। एक खेत में उन्होंने लड़की को पकड़ लिया। देखा , तो बहुत खूबसूरत थी। दाहिने गाल पर मोटा तिल था। एक लड़के ने उससे कहा ,घबराओ नहीं-क्या तुम्हारा नाम सकीना है ?

लड़की का रंग और भी जर्द हो गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया , लेकिन जब तमाम लड़कों ने उसे दम-दिलासा दिया तो उसकी दहशत दूर हुई और उसने मान लिया कि वो सराजुद्दीन की बेटी सकीना है। 

आठ रजाकार नौजवानों ने हर तरह से सकीना की दिलजोई की। उसे खाना खिलाया , दूध पिलाया और लारी में बैठा दिया। एक ने अपना कोट उतारकर उसे दे दिया ,क्योंकि दुपट्टा न होने के कारण वह बहुत उलझन महसूस कर रही थी और बार-बार बांहों से अपने सीने को ढकने की कोशिश में लगी हुई थी। 


कई दिन गुजर गए- सिराजुद्दीन को सकीना की कोई खबर न मिली। वह दिन-भर विभिन्न कैंपों और दफ्तरों के चक्कर काटता रहता ,लेकिन कहीं भी उसकी बेटी का पता न चला। रात को वह बहुत देर तक उन रजाकार नौजवानों की कामयाबी के लिए दुआएं मांगता रहता , जिन्होंने उसे यकीन दिलाया था कि अगर सकीना जिंदा हुई तो चंद दिनों में ही उसे ढूंढ निकालेंगे। 

एक रोज सिराजुद्दीन ने कैंप में उन नौजवान रजाकारों को देखा। लारी में बैठे थे। सिराजुद्दीन भागा-भागा उनके पास गया। लारी चलने ही वाली थी कि उसने पूछा-बेटा , मेरी सकीना का पता चला ?

सबने एक जवाब होकर कहा , चल जाएगा , चल जाएगा। और लारी चला दी। सिराजुद्दीन ने एक बार फिर उन नौजवानों की कामयाबी की दुआ मांगी और उसका जी किसी कदर हलका हो गया। 

शाम को करीब कैंप में जहां सिराजुद्दीन बैठा था , उसके पास ही कुछ गड़बड़-सी हुई। चार आदमी कुछ उठाकर ला रहे थे। उसने मालूम किया तो पता चला कि एक लड़की रेलवे लाइन के पास बेहोश पड़ी थी। लोग उसे उठाकर लाए हैं। सिराजुद्दीन उनके पीछे हो लिया। लोगों ने लड़की को अस्पताल वालों के सुपुर्द किया और चले गए।कुछ देर वह ऐसे ही अस्पताल के बाहर गड़े हुए लकड़ी के खंबे के साथ लगकर खड़ा रहा। फिर आहिस्ता-आहिस्ता अंदर चला गया। कमरे में कोई नहीं था। एक स्ट्रेचर था ,जिस पर एक लाश पड़ी थी। सिराजुद्दीन छोटे-छोटे कदम उठाता उसकी तरफ बढ़ा। कमरे में अचानक रोशनी हुई। सिराजुद्दीन ने लाश के जर्द चेहरे पर चमकता हुआ तिल देखा और चिल्लाया-सकीना 

डॉक्टर , जिसने कमरे में रोशनी की थी , ने सिराजुद्दीन से पूछा , क्या है ?

सिराजुद्दीन के हलक से सिर्फ इस कदर निकल सका , जी मैं...जी मैं...इसका बाप हूं। 

डॉक्टर ने स्ट्रेचर पर पड़ी हुई लाश की नब्ज टटोली और सिराजुद्दीन से कहा, खिड़की खोल दो। 

सकीना के मुद्रा जिस्म में जुंबिश हुई। बेजान हाथों से उसने इज़ारबंद खोला और सलवार  नीचे
सरका दी। बूढ़ा सिराजुद्दीन खुशी से चिल्लाया ,जिंदा है-मेरी बेटी जिंदा है-। डॉक्टर सिर से पैर 
तक पसीने में गर्क हो गया। 


बरसात के यही दिन थे. खिड़की के बाहर पीपल के पत्ते इसी तरह नहा रहे थे सागवन के स्प्रिन्गदार पलंग पर, जो अब खिड़की के पास थोड़ा इधर सरका दिया गया, एक घाटन लड़की रणधीर के साथ लिपटी हुई थी.खिड़की के पास बाहर पीपल के पत्ते रात के दुधिया अंधेरे में झुमरों की तरह थरथरा रहे थे, और शाम के समय, जब दिन भर एक अंग्रेजी अखबार की सारी खबरें और इश्तहार पढ़ने के बाद कुछ सुस्ताने के लिये वह बालकनी में आ खड़ा हुआ था तो उसने उस घाटन लड़की को, जो साथवाले रस्सियों के कारखाने में काम करती थी और बारिश से बचने के लिये इमली के पेड़ के नीचे खड़ी थी, खांस-खांसकर अपनी तरफ आकर्षित कर लिया था और उसके बाद हाथ के इशारे से ऊपर बुला लिया था.वह कई दिनों की बेहद तनहाई से उकता गया था. विश्वयुद्ध के चलते मुम्बई की लगभग तमाम ईसाई छोकरियां, जो अमूमन सस्ते दामों में मिल जाया करती थीं, वैसी जवान औरत और कमसीन लड़की अंग्रेजी फौज में भरती हो गई थीं. उनमें से कईयों ने फोर्ट के इलाके में डांस स्कूल खोल लिये थे, वहां सिर्फ फौजी गोरों को जाने की इजाजत थी.इन हालत के चलते रणधीर बहुत उदास हो गया था. जहां उसकी उदासी का कारण यह था कि क्रिश्चियन छोकरियां दुर्लभ हो गई थीं वहीं दुसरा यह कि फौजी गोरों के मुकाबले में कहीं ज्यदा सभ्य, पढ़ा-लिखा और खूबसूरत नौजवान होने के बावजूद रणधीर के लिये फोर्ट के लगभग तमाम दरवाजे बंद हो चुके थे, क्योंकि उसकी चमड़ी सफेद नहीं थी.जंग के पहले रणधीर नागपाड़ा और ताजमहल होटल की कई मशहूर क्रिश्चियन छोकरियों से जिस्मानी रिश्ते कायम कर चुका था, उसे अच्छी तरह पता था कि इस किस्म के संबंधों के आधार पर वह उन क्रिश्चियन लड़कों के मुकाबले क्रिश्चियन लड़कीयों के बारे में कहीं ज्यदा जानकारी रखता था जिनसे ये छोकरियां फैशन के तौर पर रोमांस लड़ाती हैं और बाद में उन्हीं में से किसी बेवकूफ से शादी कर लेती हैं.रणधीर ने महज हैजल से बदला लेने की खातिर उस घाटन लड़की जो अलह्ड़ मस्त जवानी से भरी हुई जवान लड़की थी को ऊपर बुलाया था. हैजल उसके फ्लैट के नीचे रहती थी. वह रोज सुबह वर्दी पहनकर कटे हुए बालों पर खाकी रंग की टोपी तिरछे कोण से जमा कर बाहर निकलती थी और ऎसे बांकापन से चलती थी, जैसे फुटपाथ पर चलने वाले सभी लोग टाट की तरह उसके कदमों में बिछते चले जाएंगे. रणधीर सोचता था कि आखिर क्यों वह उन क्रिश्चियन छोकरियों की तरफ इतना ज्यदा रीझा हुआ है. इस में कोई शक नहीं कि वे मनचली लड़कियां अपने जिस्म की तमाम दिखाई जा सकने वाली चीजों की नुमाइश करती हैं. किसी किस्म की झिझक महसूस किये बगैर मनचली लड़की अपने कारनामों का जिक्र कर देती हैं. अपने बीते हुए पुराने रोमांसों का हाल सुना देती हैं. यह सब ठीक है, लेकिन किसी दूसरी जवान औरत में भी ये खूबियां हो सकती हैं.रणधीर ने जब घाटन लड़की को इसारे से ऊपर बुलाया था तो उसे इस बात का कतई अंदाज नहीं था कि वह उसे अपने साथ सुला भी लेगा. वह तो इसके वहां आने के थोड़ी देर के बाद उसके भीगे हुए कपड़े देखकर यह शंका मन में उठी थी कि कहीं ऎसा न हो कि बेचारी को निमोनिया हो जाए. सो रणधीर ने उससे कहा था, " ये कपड़े उतार दो, सर्दी लग जाएगी ".वह रणधीर की इस बात का मतलब समझ गई थी. उसकी आखों में शर्म के लाल डोरे तैर गए थे. फिर भी जब रणधीर ने अपनी धोती निकालकर दी तो कुछ देर सोचकर अपना लहंगा उतार दिया, जिस पर मैल भीगने के कारण और भी उभर आया था.लहंगा उतारकर उसने एक तरफ रख दिया और अपनी रानों पर जल्दी से धोती डाल ली. फिर उसने अपनी भींची-भींची टांगों से ही चोली उतारने की कोशिश की जिसके दोनों किनारों को मिलाकर उसने एक गांठ दे रखी थी. वह गांठ उसके तंदुरुस्त सीने के नन्हे लेकिन सिमटे गड्ढे में छिप गई थी.कुछ देर तक वह अपने घिसे हुए नाखूनों की मदद से चोली की गांठ खोलने की कोशिश करती रही जो भीगने के कारण बहुत ज्यदा मजबूत हो गई थी. जब थक हार के बैठ गई तो उसने मरठी में रनधीर से कुछ कहा, जिसका मतलब यह था, " मैं क्या करुं, नहीं निकलती ".रणधीर उसके पास बैठ गया और गांठ खोलने लगा. जब नहीं खुली तो उसने चोली के दोनों सिरे दोनों हाथों से पकड़कर इतनी जोर का झटका दिया कि गंठ सरसराती सी फैल गई और इसी के साथ दो धड़कती हुई छातियां एकाएक उजागर हो गईं. क्षणभर के लिये रण्धीर ने सोचा कि उसके अपने हाथों से उस घाटन की लड़की के सीने पर नर्म-नर्म गुंथी हुई मिट्टी को कमा कर कुम्हार की तरह दो प्यालियों की शक्ल बना दी है.उसकी भरी-भरी सेहतमंद उरोजों में वही धड़कन, वही गोलाई, वही गरम-गरम ठंडक थी, जो कुम्हार के हाथ से निकले हुए ताजे बरतनों में होती है.मटमैले रंग की उन कुंवारी और जवान औरत की उरोजों ने एक अजीब किस्म की चमक पैदा कर दी थी जो चमक होते हुए भी चमक नहीं थी. उसके सीने पर ये उभार दो दीये मालूम होते थे जो तालब के गंदेले पानी पर जल रहे होने का आभास दे रहे थे.बरसात के यही दिन थे. खिड़की के बाहर पीपल के पत्ते इसी तरह कंपकंपा रहे थे. उस घाटन लड़की के दोनों कपड़े, जो पानी से सराबोर हो चुके थे, एक गंदेले ढेर की सूरत में फर्श पर पड़े थे और वह घाटन की नंगी लड़की रणधीर के साथ चिपटी हुई थी. उसके नंगे बदन की गर्मी रणधीर के बदन में हलचल पैदा कर रही थी, जो सख्त जाड़े के दिनों मेम नाइयों के गलीज लेकिन गरम हमामों में नहाते समय महसूस हुआ करती है.दिन भर वह रणधीर के साथ चिपटी रही. दोनों एक दूसरे के साथ गड्डमड्ड हो गए थे. उन्होंने मुश्किल से एक दो बातें की होंगी, क्योंकि जो कुछ भी कहना सुनना था, सांसों, होंठों और हाथों से तय हो रहा था. रणधीर के हाथ सारी रात उसकी नर्म-नर्म उरोजों पर हवा के झोंकों की तरह फिरते रहे. उन हवाई झोंकों से उस घाटन लड़की के बदन में एक ऎसी सरसराहट पैदा होती थी कि खुद रणधीर भी कांप उठता था.इस कंपकंपाहट से रणधीर का पहले भी सैकड़ों बार वास्ता पड़ चुका था. वह काम वासना से भरी हुई लड़की के मजे भी बखूबी जानता था. कई लड़कियों के नर्म और नाजुक लेकिन सख्त स्तनों से अपना सीना मिलाकर वह कई रातें गुजार चुका था. वह ऎसी बिलकुल अल्हड़ लड़कियों के साथ भी रह चुका था जो उसके साथ लिपट कर घर की वे सारी बातें सुना दिया करती थीं जो किसी गैर कानों के लिये नहीं होतीं. वो ऎसी कमीनी लड़की से भी जिस्मानी रिश्ता कायम कर चुका था जो सारी मेहनत खुद करती थीं और उसे कोई तकलीफ नहीं देती थीं. उसे कई समाजिक रुप से बदचलन लड़की और बदचलन औरत का भी अनुभव था जिसे वह बहुत ही रुहानी मानता था.लेकिन यह घाटन की लड़की, जो इमली के पेड़ के नीचे भीगी हुई खड़ी थी और जिसे उसने इशारे से ऊपर बुला लिया था, बिलकुल भिन्न किस्म की लड़की थी.सारी रात रणधीर को उसके जिस्म से एक अजीब किस्म की बू आती रही. इस बू को, जो एक हीं समय में खुशबू थी और बदबू भी, वह सारी रात पीता रहा. उसकी बगलों से, उसकी छातियों से, उसके बालों से, उसकी चमड़ी से, उसके जवान जिस्म के हर हिस्से से यह जो बदबू भी थी और खूशबू भी, रणधीर के पूरे शरीर में बस गई थी. सारी रात वह सोचता रहा था कि यह घाटन लड़की बिलकुल करीब हो कर भी हरगिज इतनी करीब नहीं होती, अगर उसके जिस्म से यह बू न उड़ती. यह बू उसके मन-मस्तिष्क की हर सल्वट में रेंग रही थी. उसके तमाम नए-पुराने अनुभवों में रच-बस गई थी.उस बू ने उस लड़की और रणधीर को जैसे एक-दूसरे से एकाकार कर दिया था. दोनों एक-दूसरे में समा गए थे. उन अनंत गहराईयों में उतर गए थे जहां पहुंच कर इंसान एक खालिस इंसान की संतुष्टि से सरबोर होता है. ऎसी संतुष्टि, जो क्षणिक होने पर भी अनंत थी. लगातार बदलती हुई होने पर भी द्र्ढ और स्थायी थी, दोनों एक ऎसा जवाब बन गए थे, जो आसमान के नीले शून्य में उड़ते रहने पर भी दिखाई देता रहे.उस बू को, जो उस घाटन लड़की के अंग-अंग से फूट रही थी, रणधीर बखूबी समझता था, लेकिन समझे हुए भी वह इनका विश्लेषण नहीं कर सकता था. जिस तरह कभी मिट्टी पर पानी छिड़कने से सोंधी-सोंधी बू निकलती है, लेकिन नहीं, वह बू कुछ और हीं तरह की थी. उसमें लेवेंडर और इत्र की मिलावट नहीं थी, वह बिलकुल असली थी, औरत और मर्द के शारीरिक संबंध की तरह असली और पवित्र.रणधीर को पसीने की बू से सख्त नफरत थी. नहाने के बाद वह हमेशा बगलों वैगेरह में पाउडर छिड़कता था या कोई ऎसी दवा इस्तेमाल करता था, जिससे वह बदबू जती रहे, लेकिन ताज्जुब है कि उसने कई बार, हां कई बार, उस घाटन लड़की की बालों भरी बगलों का चुम्मा लिया. उसने चूमा और उसे बिलकुल घिन नहीं आई, बल्कि एक अजीब किस्म की तुष्टि का एहसास हुआ. रणधीर को ऎसा लगता था कि वह इस बू को जानता है, पहचानता है, उसका अर्थ भी पहचानता है, लेकिन किसी को समझा नहीं सकता.बरसात के यही दिन थे. यूं ही खिड़की के बाहर जब उसने देखा तो पीपल के पत्ते उसी तरह नहा रहे थे. हवा में फड़फड़ाहटें घुली हुई थी. अंधेरा थ, लेकिन उसमें दबी-दबी धुंधली – सी रोशनी समाई हुई थी. जैसे बरिश की बुंदों के सौ सितरों का हल्का-हल्का गुब्बारा नीचे उतर आया हो. बरसात के यही दिन थे, जब रणधीर के उस कमरे में सागवान का सिर्फ़ एक ही पलंग था. लेकिन अब उस से सटा हुआ एक और पलंग भी था और कोने में एक नई ड्रेसिंग टेबल भी मौजूद थी. दिन यही बरसात के थे. मौसम भी बिलकुल वैसा ही था. बारिश की बूंदों के साथ सितारों की रोशनी का हल्का-हल्का गुब्बार उसी तरह उतर रहा था, लेकिन वातावरण में हिना की तेज खूशबू बसी हुई थी. दूसरा पलंग खाली था. इस पलंग पर रणधीर औंधे मुंह लेटा खिड़की के बाहर पीपल के झुमते हुए पत्तों का नाच देख रहा था.एक गोरी – चिट्टी लड़की अपने नंगे जिस्म को चादर से छुपाने की नाकाम कोशिश करते करते रणधीर के और भी करीब आ गई थी. उसकी सुर्ख रेशमी सलवार दूसरे पलंग पर पड़ी थी जिसके गहरे सुर्ख रंग के हजार्बंद का एक फुंदना नीचे लटक रहा था. पलंग पर उसके दूसरे कपड़े भी पड़े थे. सुनहरी फूलदार जम्फर, अंगिया, जांधिया और मचलती जवानी की वह पुकार, जो रणधीर ने घाटन लड़की के बदन की बू में सूंघी थी. वह पुकार, जो दूध के प्यासे बच्चे के रोने से ज्यादा आनंदमयी होती है. वह पुकार जो स्वप्न के दायरे से निकल कर खामोश हो गई थी.रणधीर खिड़की के बाहर देख रहा था. उसके बिलकुल करीब पीपल के नहाये हुए पत्ते झूम रहे थे. वह उनकी मस्तीभरी कम्पन के उस पार कहीं बहुत दूर देखने की कोशिश कर रहा था, जहां गठीले बादलों में अजीब किस्म की रोशनी घुली हुई दिखाई दे रही थी. ठीक वैसे ही जैसे उस घाटन लड़की के सीने में उसे नजर आई थी ऎसी रोशनी जो पुरैसरार गुफ्तगु की तरह दबी लेकिन स्पष्ट थी.रणधीर के पहलू में एक गोरी – चिट्टी लड़की, जिसका जिस्म दूध और घी में गुंथे आटे की तरह मुलायम था, उस जवान औरत की उरोजों में मक्खान सी नजाकत थी. लेटी थी. उसके नींद में मस्त जवान लड़की के मस्त नंगे बदन से हिना के इत्र की खुशबू आ रही थी जो अब थकी-थकी सी मालूम होती थी. रणधीर को यह दम तोड़ती और जुनून की हद तक पहुंची हुई खुशबू बहुत बुरी मालूम हुई. उसमें कुछ खटास थी, एक अजीब किस्म की खटास, जैसे बदहजमी में होती है, उदास, बेरंग, बेचैन.रणधीर ने अपने पहलू में लेटी हुई लड़की को देखा. जिस तरह फटे हुए दूध के बेरंग पानी में सफेद मुर्दा फुटकियां तैरने लगती हैं, उसी तरह इस लड़की के दूधिया जिस्म पर खराशें और धब्बे तैर रहे थे और … हिना की ऊटपटांग खुशबू. दरअसल रणधीर के मन – मस्तिष्क में वह बू बसी हुई थी, जो घाटन लड़की के जिस्म से बिना किसी बहरी कोशिश के स्वयं निकल रही थी. वह बू जो हिना के इत्र से कहीं ज्यदा हल्की – फुल्की और रस में डूबी हुई थी, जिसमें सूंघे जाने की कोशिश शामिल नहीम थी. वह खुद – ब – खुद नाक के रास्ते अंदर घुस अपनी सही मंजिल पर पहुंच जाती थी.लड़की के स्याह बालों में चांदी के बुरादे के कण की तह जमे हुए थे. चेहरे पर पाउडर, सुर्खी और चांदी के बुरादे के इन कणों ने मिल – जुल कर एक अजीब रंग पैदा कर दिया था. बेनाम सा उड़ा – उड़ा रंग और उसके गोरे सीने पर कच्चे रंग की अंगिया ने जगह – जगह सुर्ख ध्ब्बे बना दिये थे.लड़की की छातियां दूध की तरह सफेद थी. उनमें हल्का – हल्का नीलापन भी थी. बगलों में बाल मुंड़े हुए थे, जिसकी वजह से वहां सुरमई गुब्बार सा पैदा हो गया था. रणधीर लड़की की तरफ देख-देख्कर कई बार सोच चुका था, क्यों ऎसा नहीं लगता, जैसे मैने अभी-अभी कीलें उखाड़कर उसे लकड़ी के बंद बक्से से निकाला हो? अमूमन किताबों और चीनी के बर्तनों पर जैसी हल्की हल्की खराशें पड़ जाती हैं, ठीक उसी प्रकार उस लड़की के नंगी जवान जिस्म पर भी कई निशान थी.जब रणधीर ने उसके तंग और चुस्त अंगिया की डोरियां खोली थी तो उसकी पीठ और सामने सीने पर नर्म – नर्म गोश्त की झुर्रियां सी दिखाई दी थी और कमर के चारों तरफ कस्कर बांधे हुए इजार्बद का निशान भी. वजनी और नुकीले नेक्लेस से उसके सीने पर कई जगह खराशें पड़ गई थीं, जैसे नाखूनों से बड़े जोर से खुजलाया गया हो.बरसात के यही दिन थे, पीपल के नर्म नर्म पत्तों पर बारिश की बूंदें गिरने से वैसी ही आवाज पैदा हो रही थी, जैसी रण्धीर उस दिन सारी रात सुनता रहा था. मौसम बेहद सुहाना था. ठंडी ठंडी हवा चल रही थी . उसमें हिना के इत्र की तेज खुशबू घुली हुई थी.रणधीर के हाथ देर तक उस गोरी लड़की के क्च्चे दूध की तरह सफेद स्तनों पर हवा के झोंकों की तरह फिरते रहे थे. उसकी अंगुलियों ने उस गोरे गोरे बदन में कई चिनगारियां दौड़ती हुई महसूस की थीम. उस नाजुक बदन में कई जगहों पर सिमटे हुए क्म्पन का भी उसे पता चला था. जब उसने अपना सीना उसके सीना के साथ मिलाया तो रणधीर के जिस्म के हर रोंगटे ने उस लड़की के बदन के छिड़े तारों की भी आवाज सुनी थी, मगर वह आवाज कहां थी?रणधीर ने आखिरी कोशिश के तौर पर उस लड़की के दूधिया जिस्म पर हाथ फेरा, लेकिन उसे कोई कपंकंपी महसूस नहीं हुई. उसकी नई नवेली दुल्हन, जो कमशीन कली थी, जो फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट की बेटी थी और जो अपने कालेज के सैकड़ों दिलों की धड़कन थी, रणधीर की किसी भी चेतना को छू न सकी. वह हिना की खुशबू में उस बू को तलाश रहा था, जो इन्हीं दिनों जब खिड़की के बाहर पीपल के पत्ते बारिश में नहा रहे थे, उस घाटन लड़की के मैले बदन से आई थी.




करामात

लूटा हुआ माल बरामद करने के लिए पुलिस ने छापे मारने शुरु किए.
लोग डर के मारे लूटा हुआ माल रात के अंधेरे में बाहर फेंकने लगे,
कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अपना माल भी मौक़ा पाकर अपने से अलहदा कर दिया, ताकि क़ानूनी गिरफ़्त से बचे रहें.
एक आदमी को बहुत दिक़्कत पेश आई. उसके पास शक्कर की दो बोरियाँ थी जो उसने पंसारी की दूकान से लूटी थीं. एक तो वह जूँ-तूँ रात के अंधेरे में पास वाले कुएँ में फेंक आया, लेकिन जब दूसरी उसमें डालने लगा ख़ुद भी साथ चला गया.
शोर सुनकर लोग इकट्ठे हो गये. कुएँ में रस्सियाँ डाली गईं.
जवान नीचे उतरे और उस आदमी को बाहर निकाल लिया गया.
लेकिन वह चंद घंटो के बाद मर गया.
दूसरे दिन जब लोगों ने इस्तेमाल के लिए उस कुएँ में से पानी निकाला तो वह मीठा था.
उसी रात उस आदमी की क़ब्र पर दीए जल रहे थे