बशीर बद्र


सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं
मांगा खुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं

देखा तुझे सोचा तुझे चाहा तुझे पूजा तुझे
मेरी ख़ता मेरी वफ़ा तेरी ख़ता कुछ भी नहीं

जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भर
भेजा वही काग़ज़ उसे हमने लिखा कुछ भी नहीं

इक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक
आँखों से की बातें बहुत मुँह से कहा कुछ भी नहीं

दो चार दिन की बात है दिल ख़ाक में सो जायेगा
जब आग पर काग़ज़ रखा बाकी बचा कुछ भी नहीं

अहसास की ख़ुश्बू कहाँ आवाज़ के जुगनू कहाँ
ख़ामोश यादों के सिवा घर में रहा कुछ भी नहीं

सुन ली जो ख़ुदा ने वो दुआ तुम तो नहीं हो

सुन ली जो ख़ुदा ने वो दुआ तुम तो नहीं हो
दरवाज़े पे दस्तक की सदा तुम तो नहीं हो

सिमटी हुई शर्माई हुई रात की रानी
सोई हुई कलियों की हया तुम तो नहीं हो

महसूस किया तुम को तो गीली हुई पलकें
भीगे हुये मौसम की अदा तुम तो नहीं हो

इन अजनबी राहों में नहीं कोई भी मेरा
किस ने मुझे यूँ अपना कहा तुम तो नहीं हो



साथ चलते आ रहे हैं पास आ सकते नहीं


साथ चलते आ रहे हैं पास आ सकते नहीं
इक नदी के दो किनारों को मिला सकते नहीं

देने वाले ने दिया सब कुछ अजब अंदाज से
सामने दुनिया पड़ी है और उठा सकते नहीं

इस की भी मजबूरियाँ हैं, मेरी भी मजबूरियाँ हैं
रोज मिलते हैं मगर घर में बता सकते नहीं

आदमी क्या है गुजरते वक्त की तसवीर है
जाने वाले को सदा देकर बुला सकते नहीं

किस ने किस का नाम ईंट पे लिखा है खून से
इश्तिहारों से ये दीवारें छुपा सकते नहीं

उस की यादों से महकने लगता है सारा बदन
प्यार की खुशबू को सीने में छुपा सकते नहीं

राज जब सीने से बाहर हो गया अपना कहाँ
रेत पे बिखरे हुए आँसू उठा सकते नहीं

शहर में रहते हुए हमको जमाना हो गया
कौन रहता है कहाँ कुछ भी बता सकते नहीं

पत्थरों के बर्तनों में आँसू को क्या रखें
फूल को लफ्जों के गमलों में खिला सकते नहीं





वो चांदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है










वो चांदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है
बहुत अज़ीज़ हमें है मगर पराया है
उतर भी आओ कभी आसमाँ के ज़ीने से
तुम्हें ख़ुदा ने हमारे लिये बनाया है
महक रही है ज़मीं चांदनी के फूलों से
ख़ुदा किसी की मुहब्बत पे मुस्कुराया है
उसे किसी की मुहब्बत का ऐतबार नहीं
उसे ज़माने ने शायद बहुत सताया है
तमाम उम्र मेरा दम उसके धुएँ से घुटा
वो इक चराग़ था मैंने उसे बुझाया है








हम भी दरिया हैं, 


हम भी दरिया हैं, 
हमें अपना हुनर मालूम है,
जिस तरफ चल पड़ेंगे, 

रास्ता हो जाएगा 






युँही बेसबब न फ़िरा करो 


युँही बेसबब न फ़िरा करो, कोई शाम घर भी रहा करो
वो गज़ल की ऐसी किताब है उसे चुपके चुपके पढ़ा करो

ये ॰खिजां की जर्द-सी शाल में जो उदास पेड़ के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आंसुओं से हरा करो

कोई हाथ भी ना मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो

कभी हुस्न पर्द:नशीं भी हो जरा आशिकाना लिबास में
जो मैं बन संवर के कहीं चलूँ मेरे साथ तुम भी चला करो

नहीं बेहिज़ाब॰ वो चाँद-सा कि नज़र का कोई असर ना हो
उसे इतनी गर्मि-ए-शौक से बड़ी देर तक न तका करो









संग्रह: आस





1.
अच्छा तुम्हारे शहर का दस्तूर हो गया
जिसको गले लगा लिया वो दूर हो गया

कागज में दब के मर गए कीड़े किताब के
दीवाना बे पढ़े-लिखे मशहूर हो गया

महलों में हमने कितने सितारे सजा दिये
लेकिन ज़मीं से चाँद बहुत दूर हो गया

तन्हाइयों ने तोड़ दी हम दोनों की अना
आईना बात करने पे मज़बूर हो गया

सुब्हे-विसाल पूछ रही है अज़ब सवाल
वो पास आ गया कि बहुत दूर हो गया

कुछ फल जरूर आयेंगे रोटी के पेड़ में
जिस दिन तेरा मतालबा मंज़ूर हो गया

2.
अपने पहाड़ ग़ैर के गुलज़ार हो गये
वे भी हमारी राह की दीवार हो गये

फल पक चुका है शाख़ पर गर्मी की धूप में
हम अपने दिल की आग में तैयार हो गये

हम पहले नर्म पत्तों की इक शाख़ थे मगर
काटे गये हैं इतने कि तलवार हो गये

बाज़ार में बिकी हुई चीजों की माँग है
हम इस लिये ख़ुद अपने ख़रीदार हो गये

ताजा लहू भरा था सुनहरे गुलाब में
इन्कार करने वाले गुनहगार हो गये

वो सरकशों के पाँव की ज़ंजीर थे कभी
अब बुज़दिलों के हाथ में तलवार हो गये


3.
आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा
किश्ती के मुसाफ़िर ने समन्दर नहीं देखा
बेवक़्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगे
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा
जिस दिन से चला हूँ मिरी मंज़िल पे नज़र है
आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा
ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं
तुमने मिरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा
पत्थर मुझे कहता है मिरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उसने मुझे छूकर नहीं देखा
क़ातिल के तरफ़दार का कहना है कि उसने
मक़तूल की गर्दन पे कभी सर नहीं देखा




4.





आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा




किश्ती के मुसाफ़िर ने समन्दर नहीं देखा
बेवक़्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगे
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा
जिस दिन से चला हूँ मिरी मंज़िल पे नज़र है
आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा
ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं
तुमने मिरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा
पत्थर मुझे कहता है मिरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उसने मुझे छूकर नहीं देखा
क़ातिल के तरफ़दार का कहना है कि उसने
मक़तूल की गर्दन पे कभी सर नहीं देखा




5.
आंसुओं से धुली ख़ुशी की तरह
रिश्ते होते हैं शायरी की तरह

जब कभी बादलों में घिरता है
चाँद लगता है आदमी की तरह

किसी रोज़न किसी दरीचे से
सामने आओ रोशनी की तरह

सब नज़र का फ़रेब है वर्ना
कोई होता नहीं किसी की तरह

खूबसूरत, उदास, ख़ौफ़जदा
वो भी है बीसवीं सदी की तरह

जानता हूँ कि एक दिन मुझको
वक़्त बदलेगा डायरी की तरह

6.
आग को गुलज़ार करदे, बर्फ़ को दरिया करे
देखने वाला तेरी आवाज़ को देखा करे

उसकी रहमत ने मिरे बच्चे के माथे पर लिखा
इस परिन्दे के परों पर आस्माँ सज़दा करे

एक मुट्ठी ख़ाक थे हम, एक मुट्ठी ख़ाक हैं
उसकी मर्ज़ी है हमें सहरा करे, दरिया करे

दिन का शहज़ादा मिरा मेहमान है, बेशक रहे
रात का भूला मुसाफ़िर भी यहाँ ठहरा करे

आज पाकिस्तान की इक शाम याद आई बहुत
क्या ज़ुरूरी है कि बेटी बाप से परदा करे

7.



आया ही नहीं हमको आहिस्ता गुज़र जाना

शीशे का मुक़द्दर है टकरा के बिखर जाना

तारों की तरह शब के सीने में उतर जाना
आहट न हो क़दमों की इस तरह गुज़र जाना

नश्शे में सँभलने का फ़न यूँ ही नहीं आता
इन ज़ुल्फ़ों से सीखा है लहरा के सँवर जाना

भर जायेंगे आँखों में आँचल से बँधे बादल
याद आएगा जब गुल पर शबनम का बिखर जाना

हर मोड़ पे दो आँखें हम से यही कहती हैं
जिस तरह भी मुमकिन हो तुम लौट के घर जाना

पत्थर को मिरा साया, आईना सा चमका दे
जाना तो मिरा शीशा यूँ दर्द से भर जाना

ये चाँद सितारे तुम औरों के लिये रख लो
हमको यहीं जीना है, हमको यहीं मर जाना

जब टूट गया रिश्ता सर-सब्ज़ पहाड़ों से
फिर तेज हवा जाने किस को है किधर जाना


9.
इबादतों की तरह मैं ये काम करता हूँ
मेरा उसूल है, पहले सलाम करता हूँ

मुख़ालिफ़त से मेरी शख़्सियत सँवरती है
मैं दुश्मनों का बड़ा एहतराम करता हूँ

मैं अपनी जेब में अपना पता नहीं रखता
सफ़र में सिर्फ यही एहतमाम करता हूँ

मैं डर गया हूँ बहुत सायादार पेड़ों से
ज़रा सी धूप बिछाकर क़याम करता हूँ

मुझे ख़ुदा ने ग़ज़ल का दयार बख़्शा है

इस ज़ख्मी प्यासे को इस तरह पिला देना
ये सल्तनत मैं मोहब्बत के नाम करता हू


10.
उड़ती किरणों की रफ़्तार से तेज़ तर
नीले बादल के इक गाँव में जायेंगे
धूप माथे पे अपने सजा लायेंगे
साये पलकों के पीछे छुपा लायेंगे

बर्फ पर तैरते रोशनी के बदन
चलती घड़ियों की दो सुइयों की तरह
दायरे में सदा घूमने के लिये
आहिनी महवरों पर जड़े जायेंगे

जब ज़रा शाम कुछ बेतकल्लुफ़ हुई
बरगज़ीदा फ़रिश्तों के पर नुच गये
रात का टेप सूरज बजा दे अगर
मोम के पाक़ चेहरे पिघल जायेंगे

सुरमई हड्डियों, ख़ाक़ी अश्जार ने
लौटने वालों का ख़ैर मक़दम किया
हमने तो ये सुना था कि इन लोगों पे
चाँद तारे बहोत फूल बरसायेंगे

मुख़तलिफ़ पेच में इक कसी शख़्सियत
याद का फूल बन कर बिखर जायेगी
धूप के चमचमाते हुए हाथ जब
नीम के फूल सड़कों पे बरसायेंगे









11.
उसको आईना बनाया, धूप का चेहरा मुझे
रास्ता फूलों का सबको, आग का दरिया मुझे

चाँद चेहरा, जुल्फ दरिया, बात खुशबू, दिल चमन
इन तुम्हें देकर ख़ुदा ने दे दिया क्या-क्या मुझे

जिस तरह वापस कोई ले जाए अपनी छुट्टियाँ
जाने वाला इस तरह से कर गया तन्हा मुझे

तुमने देखा है किसी मीरा को मंदिर में कभी
एक दिन उसने ख़ुदा से इस तरह माँगा मुझे

मेरी मुट्ठी में सुलगती रेत रखकर चल दिया
कितनी आवाज़ें दिया करता था ये दरिया मुझे








12.
कभी यूँ भी आ मेरी आँख में, कि मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सहर न हो

वो बड़ा रहीमो-करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो मेरी दुआ में असर न हो

मेरे बाज़ुओं में थकी-थकी, अभी महवे- ख़्वाब है चाँदनी
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो

ये ग़ज़ल है जैसे हिरन की आँखों में पिछली रात की चाँदनी
न बुझे ख़राबे की रौशनी, कभी बे-चिराग़ ये घर न हो

कभी दिन की धूप में झूम कर, कभी शब के फूल को चूम कर
यूँ ही साथ-साथ चले सदा, कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो

मेरे पास मेरे हबीब आ, ज़रा और दिल के करीब आ
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं, कि बिछड़ने का कभी डर न हो






13.


कहाँ आँसुओं की ये सौगात होगी







नए लोग होंगे नयी बात होगी

मैं हर हाल में मुस्कराता रहूँगा
तुम्हारी मोहब्बत अगर साथ होगी

चराग़ों को आँखों में महफूज़ रखना
बड़ी दूर तक रात ही रात होगी

न तुम होश में हो न हम होश में है
चलो मयकदे में वहीं बात होगी

जहाँ वादियों में नए फूल आएँ
हमारी तुम्हारी मुलाक़ात होगी

सदाओं को अल्फाज़ मिलने न पायें
न बादल घिरेंगे न बरसात होगी

मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी



14.
किताबें, रिसाले न अख़बार पढ़ना
मगर दिल को हर रात इक बार पढ़ना

सियासत की अपनी अलग इक ज़बाँ है
लिखा हो जो इक़रार, इनकार पढ़ना

अलामत नये शहर की है सलामत
हज़ारों बरस की ये दीवार पढ़ना

किताबें, किताबें, किताबें, किताबें
कभी तो वो आँखें, वो रुख़सार पढ़ना

मैं काग़ज की तक़दीर पहचानता हूँ
सिपाही को आता है तलवार पढ़ना

बड़ी पुरसुकूँ धूप जैसी वो आँखें
किसी शाम झीलों के उस पार पढ़ना

ज़बानों की ये ख़ूबसूरत इकाई
ग़ज़ल के परिन्दों का अशआर पढ़ना

15.

किस देश में ये क़ाफलए वक़्त रुका है
आरिज़ के उजाले हैं न ज़ुल्फों की घटा है

कुछ मेरी निगाहों के तले धुंध बहोत है
कुछ जश्ने-चरागाँ से अन्धेरा भी बढ़ा है

मैं ने तिरी बातों को कभी झूठ कहा था
उस जुर्म पे हर झूठ को सच मान लिया है

ऐ शोख़ गिज़ालो, यहाँ दो फूल तो रख दो
इस क़ब्र में ख़्वाबीदा मोहब्बत का ख़ुदा है

आरिज़ से झलकती है गुलाबों की गुलाबी
मेरी निगाहे-शौक़ ने वो रंग दिया है

अब आओ कलेजे से लिपट कर मिरे सो जाओ
बाहर कहाँ जाओगे बड़ी सर्द हवा है

कुछ देर में साँसों की भी आहट न मिलेगी
दिल रात के सन्नाटे में यूँ डूब रहा है

16. 

दालानों की धूप, छतों की शाम कहाँ
घर से बाहर घर जैसा आराम कहाँ

बाज़ारों की चहल-पहल से रोशन है
इन आँखों में मन्दिर जैसी शाम कहाँ

मैं उसको पहचान नहीं पाया तो क्या
याद उसे भी आया मेरा नाम कहाँ

चन्दा के बस्ते में सूखी रोटी है
काजू, किशमिश, पिस्ते और बादाम कहाँ

लोगों को सूरज का धोखा होता है
आँसू बनकर चमका मेरा नाम कहाँ

दिन भर सूरज किस का पीछा करता है
रोज़ पहाड़ी पर जाती है शाम कहाँ



17.
दिल पे छाया रहा उमस की तरह
एक लम्हा था सौ बरस की तरह

वो मोहब्बत की तरह पिघलेगी
मैं भी मर जाऊँगा हवस की तरह

रात सर पर लिये हूँ जंगल में
रास्ते की ख़राब बस की तरह

आत्मा बेज़बान मैना है
माटी का तन क़फ़स की तरह

ख़ानक़ाहों में ख़ाक़ उड़ती है
उर्दू वालों के कैम्पस की तरह

मौत की वादियों से गुज़रूँगा
मैं पहाड़ों की एक बस की तरह



19.


याद अब ख़ुद को आ रहे हैं हम
कुछ दिनों तक ख़ुदा रहे हैं हम

आरज़ूओं के सुर्ख़ फूलों से
दिल की बस्ती सजा रहे हैं हम

आज तो अपनी ख़ामुशी में भी
तेरी आवाज़ पा रहे हैं हम

बात क्या है कि फिर ज़माने को
याद रह-रह के आ रहे हैं हम

जो कभी लौट कर नहीं आते
वो ज़माने बुला रहे हैं हम

ज़िंदगी अब तो सादगी से मिल
बाद सदियों के आ रहे हैं हम

अब हमें देख भी न पाओगे
इतने नज़दीक आ रहे हैं हम

ग़ज़लें अब तक शराब पीती थीं
नीम का रस पिला रहे हैं हम

धूप निकली है मुद्दतों के बाद
गीले जज़्बे सुखा रहे हैं हम

फ़िक्र की बेलिबास शाख़ों पर
फ़न की पत्ती लगा रहे हैं हम

सर्दियों में लिहाफ़ से चिमटे
चाँद तारों पे जा रहे हैं हम

ज़ीस्त की एक बर्फ़ी लड़की को
’नूरओ नामा’ पढ़ा रहे हैं हम

उस ने पूछा हमारे घर का पता
काफ़ी हाउस बुला रहे हैं हम

कंधे उचका के बात करने में
मुनफ़रद होते जा रहे हैं हम

चुस्त कपड़ों में ज़िस्म जाग पड़े
रूहो-दिल को सुला रहे हैं हम

कोई शोला है कोई जलती आग
जल रहे हैं जला रहे हैं हम

टेढ़ी तहज़ीब, टेढ़ी फ़िक्रो नज़र
टेढ़ी ग़ज़लें सुना रहे हैं हम



21.




नारियल के दरख़्तों की पागल हवा खुल गये बादबाँ लौट जा लौट जा
साँवली सरज़मीं पर मैं अगले बरस फूल खिलने से पहले ही आ जाऊँगा
गर्म कपड़ों का सन्दूक़ मत खोलना वरना यादों की काफ़ूर जैसी महक
ख़ून में आग बन कर उतर जायेगी सुबह तक ये मकाँ ख़ाक हो जायेगा
लान में एक भी बेल ऐसी नहीं जो देहाती परिन्दे के पर बाँध ले
जंगली आम की जान लेवा महक जब बुलायेगी वापस चला जायेगा
मेरे बचपन के मन्दिर की वह मूर्ति धूप के आसमाँ पे खड़ी थी मगर
एक दिन जब मिरा क़द मुकम्मिल हुआ उसका सारा बदन बर्फ में धँस गया
अनगिनत काले काले परिन्दों के पर टूट कर ज़र्दबानी को ढकने लगे
फाख़ता धूप के पुल पे बैठी रही रात का हाथ चुपचाप बढ़ता गया

22.
नारियल के दरख़्तों की पागल हवा खुल गये बादबाँ लौट जा लौट जा
साँवली सरज़मीं पर मैं अगले बरस फूल खिलने से पहले ही आ जाऊँगा
गर्म कपड़ों का सन्दूक़ मत खोलना वरना यादों की काफ़ूर जैसी महक
ख़ून में आग बन कर उतर जायेगी सुबह तक ये मकाँ ख़ाक हो जायेगा
लान में एक भी बेल ऐसी नहीं जो देहाती परिन्दे के पर बाँध ले
जंगली आम की जान लेवा महक जब बुलायेगी वापस चला जायेगा
मेरे बचपन के मन्दिर की वह मूर्ति धूप के आसमाँ पे खड़ी थी मगर
एक दिन जब मिरा क़द मुकम्मिल हुआ उसका सारा बदन बर्फ में धँस गया
अनगिनत काले काले परिन्दों के पर टूट कर ज़र्दबानी को ढकने लगे
फाख़ता धूप के पुल पे बैठी रही रात का हाथ चुपचाप बढ़ता गया

23.
पत्थर जैसे मछली के कूल्हे चमके
गंगा जल में आग लगा कर चले गये

सात सितारे उड़ते घोड़ों पर आये
पल्कों से कुछ फूल चुरा कर चले गये

दीवारें, दीवारों की ज़ानिब सरकीं
छत से बिस्तर लोग उठा कर चले गये

तितली भागे तितली के पीछे-पीछे
फूल आये और फूल चुरा कर चले गये

सर्दी आई लोग पहाड़ों को भूले
पत्थर पर शीशे बिखरा कर चले गये

रात हवा के ऐसे झोंके दर आये
भरी हुई छागल छलका कर चले गये



24.

परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता
बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता
हजारों शेर मेरे सो गये कागज की कब्रों में
अजब मां हूं कोई बच्चा मेरा ज़िन्दा नहीं रहता
तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नये अन्दाज वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता
मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है
कोई इन्सान तन्हाई में भी कभी तन्हा नहीं रहता
कोई बादल हरे मौसम का फ़िर ऐलान करता है
ख़िज़ा के बाग में जब एक भी पत्ता नहीं रहता
25.
फूल सा कुछ कलाम और सही
एक ग़ज़ल उस के नाम और सही

उस की ज़ुल्फ़ें बहुत घनेरी हैं
एक शब का क़याम और सही

ज़िन्दगी के उदास क़िस्से में
एक लड़की का नाम और सही

कुर्सियों को सुनाइये ग़ज़लें
क़त्ल की एक शाम और सही

कँपकँपाती है रात सीने में
ज़हर का एक जाम और सही
26.
मुझे भुलाये कभी याद कर के रोये भी
वो अपने आप को बिखराये और पिरोये भी

बहुत ग़ुबार भरा था दिलों में दोनों के
मगर वो एक ही बिस्तर पे रात सोये भी

बहुत दिनों से नहाये नहीं हैं आँगन में
कभी तो राह की बारिश हमें भिगोये भी

ये तुमसे किसने कहा रात से मैं डरता हूँ
ज़रूर आये मेरे बाज़ुओं में सोये भी

वो नौजवाँ तो जवानी की नींद में ग़ुम था
बहुत पुकारा, झंझोड़ा, लिपट के रोये भी

यक़ीन जानिये अहसास तक न होगा हमें
नसों में सुईयाँ कोई अगर चुभोये भी
27.
मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहे
मुक़द्दर में चलना था चलते रहे

कोई फूल सा हाथ काँधे पे था
मेरे पाँव शोलों पे चलते रहे

मेरे रास्ते में उजाला रहा
दिये उस की आँखों के जलते रहे

वो क्या था जिसे हमने ठुकरा दिया
मगर उम्र भर हाथ मलते रहे

मुहब्बत अदावत वफ़ा बेरुख़ी
किराये के घर थे बदलते रहे

सुना है उन्हें भी हवा लग गई
हवाओं के जो रुख़ बदलते रहे

लिपट के चराग़ों से वो सो गये
जो फूलों पे करवट बदलते रहे
28.



मैं ज़मीं ता आसमाँ, वो कैद आतिशदान में
धूप रिश्ता बन गई, सूरज में और इन्सान में

मैं बहुत दिन तक सुनहरी धूप खा आँगन रहा
एक दिन फिर यूँ हुआ शाम आ गई दालान में

किस के अन्दर क्या छुपा है कुछ पता चलता नही
तैल की दौलत मिली वीरान रेगिस्तान में

शक़्ल, सूरत, नाम, पहनावा, ज़बाँ अपनी जगह
फ़र्क़ वरना कुछ नहीं इन्सान और इन्सान में

इन नई नस्लों ने सूरज आज तक देखा नहीं
रात हिन्दुस्तान में है, रात पाकिस्तान में



29.

मैकदा रात ग़म का घर निकला
दिल हथेली तले खंडहर निकला

मैं उसे ढूँढता था आँखों में
फूल बनकर वो शाख़ पर निकला

किसके साए में सर छुपाओगे
वो शजर धूप का शजर निकला

उसका आँचल भी कोई बादल था
वो हवाओं का हमसफ़र निकला

कोई कागज़ न था लिफ़ाफ़े में
सिर्फ़ तितली का एक पर निकला

जब से जाना कि वो बहादुर है
दिल से कुछ दुश्मनों का डर निकला

ज़िंदगी एक फ़क़ीर की चादर है
जब ढके पाँव अपना सर निकला
30.
मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला

घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे
बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला

तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था
फिर इसके बाद मुझे कोई अजनबी न मिला

बहुत अजीब है ये क़ुरबतों की दूरी भी
वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला

ख़ुदा की इतनी बड़ी क़ायनात में मैंने
बस एक शख़्स को माँगा मुझे वही न मिला
31.
मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला

घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे
बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला

तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था
फिर इसके बाद मुझे कोई अजनबी न मिला

बहुत अजीब है ये क़ुरबतों की दूरी भी
वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला

ख़ुदा की इतनी बड़ी क़ायनात में मैंने
बस एक शख़्स को माँगा मुझे वही न मिला
32.
याद अब ख़ुद को आ रहे हैं हम
कुछ दिनों तक ख़ुदा रहे हैं हम

आरज़ूओं के सुर्ख़ फूलों से
दिल की बस्ती सजा रहे हैं हम

आज तो अपनी ख़ामुशी में भी
तेरी आवाज़ पा रहे हैं हम

बात क्या है कि फिर ज़माने को
याद रह-रह के आ रहे हैं हम

जो कभी लौट कर नहीं आते
वो ज़माने बुला रहे हैं हम

ज़िंदगी अब तो सादगी से मिल
बाद सदियों के आ रहे हैं हम

अब हमें देख भी न पाओगे
इतने नज़दीक आ रहे हैं हम

ग़ज़लें अब तक शराब पीती थीं
नीम का रस पिला रहे हैं हम

धूप निकली है मुद्दतों के बाद
गीले जज़्बे सुखा रहे हैं हम

फ़िक्र की बेलिबास शाख़ों पर
फ़न की पत्ती लगा रहे हैं हम

सर्दियों में लिहाफ़ से चिमटे
चाँद तारों पे जा रहे हैं हम

ज़ीस्त की एक बर्फ़ी लड़की को
’नूरओ नामा’ पढ़ा रहे हैं हम

उस ने पूछा हमारे घर का पता
काफ़ी हाउस बुला रहे हैं हम

कंधे उचका के बात करने में
मुनफ़रद होते जा रहे हैं हम

चुस्त कपड़ों में ज़िस्म जाग पड़े
रूहो-दिल को सुला रहे हैं हम

कोई शोला है कोई जलती आग
जल रहे हैं जला रहे हैं हम

टेढ़ी तहज़ीब, टेढ़ी फ़िक्रो नज़र
टेढ़ी ग़ज़लें सुना रहे हैं हम

33.
यूँ ही बे-सबब न फिरा करो, कोई शाम घर में भी रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो

कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से
ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो

अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आयेगा कोई जायेगा
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो

मुझे इश्तहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियाँ
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो

कभी हुस्न-ए-पर्दानशीं भी हो ज़रा आशिक़ाना लिबास में
जो मैं बन-सँवर के कहीं चलूँ, मेरे साथ तुम भी चला करो

ये ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी शाम में, जो उदास पेड़ के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आँसुओं से हरा करो

नहीं बे-हिजाब वो चाँद-सा कि नज़र का कोई असर नहीं
उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो
34.
रेत भरी है इन आँखों में, आँसू से तुम धो लेना
कोई सूखा पेड़ मिले तो उससे लिपट कर रो लेना

इसके बाद बहुत तन्हा हो जैसे जंगल का रस्ता
जो भी तुमसे प्यार से बोले, साथ उसी के हो लेना

कुछ तो रेत की प्यास बुझाओ, जनम-जनम की प्यासी है
साहिल पर चलने से पहले, अपने पाँव भिगो लेना

मैंने दरिया से सीखी है, पानी की परदादारी
ऊपर-ऊपर हँसते रहना, गहराई में रो लेना

रोते क्यों हो, दिलवालों की तो क़िस्मत ऐसी होती है
सारी रात युँही जागोगे, दिन निकले तो सो लेना
35.
लगी दिल की हमसे कही जाय ना
ग़ज़ल आँसुओं से लिखी जाय ना

अजब है कहानी मिरे प्यार की
लिखी जाय लेकिन पढ़ी जाय ना

सवेरे से पनघट पे बैठी रहूँ
पिया बिन गगरिया भरी जाय ना

न मन्दिर न मस्जिद न दैरो-हरम
हमारी कहीं भी सुनी जाय ना

ख़ुदा से ये बाबा दुआएं करो
हमें छोड़कर वो कहीं जाय ना

सुनाते-सुनाते सहर हो गई
मगर बात दिल की कही जाय ना

36.
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में
और जाम टूटेंगे इस शराब-ख़ाने में
मौसमों के आने में मौसमों के जाने में
हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं
उम्र बीत जाती है दिल को दिल बनाने में
फ़ाख़्ता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती
कौन साँप रहता है उसके आशियाने में
दूसरी कोई लड़की ज़िन्दगी में आयेगी
कितनी देर लगती है उसको भूल जाने में 
37.
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में
और जाम टूटेंगे इस शराब-ख़ाने में
मौसमों के आने में मौसमों के जाने में
हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं
उम्र बीत जाती है दिल को दिल बनाने में
फ़ाख़्ता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती
कौन साँप रहता है उसके आशियाने में
दूसरी कोई लड़की ज़िन्दगी में आयेगी
कितनी देर लगती है उसको भूल जाने में 

38.
वक़्ते-रुख़सत कहीं तारे कहीं जुगनू आए
हार पहनाने मुझे फूल से बाजू आए

बस गई है मेरे अहसास में ये कैसी महक
कोई ख़ुशबू मैं लगाऊँ, तेरी ख़ुशबू आए

इन दिनों आपका आलम भी अजब आलम है
तीर खाया हुआ जैसे कोई आहू आए

उसकी बातें कि गुलो-लाला पे शबनम बरसे
सबको अपनाने का उस शोख़ को जादू आए

उसने छूकर मुझे पत्थर से फिर इन्सान किया
मुद्दतों बाद मेरी आँखों में आँसू आए
39.
वो ग़ज़ल वालो का असलूब[1] समझते होंगे
चाँद कहते है किसे ख़ूब समझते होंगे

इतनी मिलती है मिरी ग़ज़लों से सूरत तेरी
लोग तुझको मेरा महबूब समझते होंगे

मैं समझता था मुहब्बत की ज़बाँ ख़ुश्बू है
फूल से लोग उसे ख़ूब समझते होंगे

देख कर फूल के औराक़ [2] पे शबनम कुछ लोग
तेरा अश्कों भरा मकतूब[3] समझते होंगे

भूल कर अपना ज़माना ये ज़माने वाले
आज के प्यार को मायूब[4] समझते होंगे 
40.
शबनम हूँ सुर्ख़ फूल पे बिखरा हुआ हूँ मैं
दिल मोम और धूप में बैठा हुआ हूँ मैं

कुछ देर बाद राख मिलेगी तुम्हें यहाँ
लौ बन के इस चराग़ से लिपटा हुआ हूँ मैं

दो सख़्त खुश्क़ रोटियां कब से लिए हुए
पानी के इन्तिज़ार में बैठा हुआ हूँ मैं

लाठी उठा के घाट पे जाने लगे हिरन
कैसे अजीब दौर में पैदा हुआ हूँ मैं

नस-नस में फैल जाऊँगा बीमार रात की
पलकों पे आज शाम से सिमटा हुआ हूँ मैं

औराक़ में छिपाती थी अक़्सर वो तितलियाँ
शायद किसी किताब में रक्खा हुआ हूँ मैं

दुनिया हैं बेपनाह तो भरपूर ज़िंदगी
दो औरतों के बीच में लेटा हुआ मैं 



संग्रह: उजाले अपनी यादों के




1.


अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जायेगा
मगर तुम्हारी तरह कौन मुझे चाहेगा


तुम्हें ज़रूर कोई चाहतों से देखेगा
मगर वो आँखें हमारी कहाँ से लायेगा


ना जाने कब तेरे दिल पर नई सी दस्तक हो
मकान ख़ाली हुआ है तो कोई आयेगा


मैं अपनी राह में दीवार बन के बैठा हूँ
अगर वो आया तो किस रास्ते से आयेगा


तुम्हारे साथ ये मौसम फ़रिश्तों जैसा है
तुम्हारे बाद ये मौसम बहुत सतायेगा




2.
किसे ख़बर थी तुझे इस तरह सजाऊँगा
ज़माना देखेगा और मैं न देख पाऊँगा

हयातो-मौत फ़िराको-विसाल सब यकजा
मैं एक रात में कितने दिये जलाऊँगा

पला बढ़ा हूँ अभी तक इन्हीं अन्धेरों में
मैं तेज़ धूप से कैसे नज़र मिलाऊँगा

मिरे मिज़ाज की ये मादराना फ़ितरत है
सवेरे सारी अज़ीयत मैं भूल जाऊँगा

तुम एक पेड़ से बाबस्ता हो मगर मैं तो
हवा के साथ बहुत दूर दूर जाऊँगा

मिरा ये अहद है मैं आज शाम होने तक
जहाँ से रिज़्क लिखा है वहीं से लाऊँगा



3.





कोई चिराग़ नहीं है मगर उजाला है
ग़ज़ल की शाख़ पे इक फूल खिलने वाला है

ग़ज़ब की धूप है इक बे-लिबास पत्थर पर
पहाड़ पर तेरी बरसात का दुशाला है

अजीब लहजा है दुश्मन की मुस्कराहट का
कभी गिराया है मुझको कभी सँभाला है

निकल के पास की मस्जिद से एक बच्चे ने
फ़साद में जली मूरत पे हार डाला है

तमाम वादी में, सहरा में आग रोशन है
मुझे ख़िज़ाँ के इन्हीं मौसमों ने पाला है
4.
कोई जाता है यहाँ से न कोई आता है
ये दिया अपने अँधेरे में घुटा जाता है

सब समझते हैं वही रात की क़िस्मत होगा
जो सितारा कि बुलन्दी पे नज़र आता है

बिल्डिंगें लोग नहीं हैं जो कहीं भाग सकें
रोज़ इन्सानों का सैलाब बढ़ा जाता है

मैं इसी खोज में बढ़ता ही चला जाता हूँ
किसका आँचल है जो कोहसारों पे लहराता है

मेरी आँखों में है इक अब्र का टुकड़ा शायद
कोई मौसम हो सरे-शाम बरस जाता है

दे तसल्ली जो कोई आँख छलक उठती है
कोई समझाए तो दिल और भी भर आता है

अब्र के खेत में बिजली की चमकती हुई राह
जाने वालों के लिये रास्ता बन जाता है

5.
कोई फूल धूप की पत्तियों में, हरे रिबन से बंधा हुआ ।
वो ग़ज़ल का लहजा नया-नया, न कहा हुआ न सुना हुआ ।

जिसे ले गई अभी हवा, वे वरक़ था दिल की किताब का,
कही आँसुओं से मिटा हुआ, कहीं, आँसुओं से लिखा हुआ ।

कई मील रेत को काटकर, कोई मौज फूल खिला गई,
कोई पेड़ प्यास से मर रहा है, नदी के पास खड़ा हुआ ।

मुझे हादिसों ने सजा-सजा के, बहुत हसीन बना दिया,
मिरा दिल भी जैसे दुल्हन का हाथ हो, मेहन्दियों से रचा हुआ ।

वही शहर है वही रास्ते, वही घर है और वही लान भी,
मगर इस दरीचे से पूछना, वो दरख़्त अनार का क्या हुआ ।

वही ख़त के जिसपे जगह-जगह, दो महकते होंठों के चाँद थे,
किसी भूले बिसरे से ताक़ पर, तहे-गर्द होगा दबा हुआ ।
6.
कोई लश्कर है के बढ़ते हुए ग़म आते हैं
शाम के साये बहुत तेज़ क़दम आते हैं
दिल वो दरवेश है जो आँख उठाता ही नहीं
इस के दरवाज़े पे सौ अहले करम आते हैं
मुझ से क्या बात लिखानी है कि अब मेरे लिये
कभी सोने कभी चाँदी के क़लम आते हैं
मैं ने दो चार किताबें तो पढ़ी हैं लेकिन
शहर के तौर तरीक़े मुझे कम आते हैं
ख़ूबसूरत सा कोई हादसा आँखों में लिये
घर की दहलीज़ पे डरते हुए हम आते हैं
7.
ख़ुफ़ता शजर लरज़ उठे जैसे कि डर गये
कुछ चाँदनी के फूल ज़मीं पर बिखर गये

शीशे का ताज सर पे रखे आ रही थी रात
टकराई हम से चाँद-सितारे बिखर गये

वो ख़ुश्क होंठ रेत से नम माँगते रहे
जिन की तलाश में कई दरिया गुज़र गये

चाहा था मैंने चाँद की पलकों को चूम लूँ
होठों पे मेरे सुबह के तारे बिखर गये

मेरे लबों पे चाँद की क़ाशें लरज़ गईं
आँखों पे जैसे रात के गेसू बिखर गये

तलवों में नर्म धूप ने जब गुदगुदी सी की
पलकों पे सोये चाँदनी के ख़्वाब डर गये

साहिल पे रुक गये थे ज़रा देर के लिये
आँखों से दिल में कितने समन्दर उतर गये

पाया जो मुस्कुराते हुये कह उठी बहार
जो ज़ख़्म पिछले साल लगाये थे भर गये

जिन पर लिखी हुई थी मोहब्बत की दास्ताँ
वो चाक चाक पुरज़े हवा में बिखर गये
8.
ख़ुशबू की तरह आया, वो तेज हवाओं में
माँगा था जिसे हमने दिन-रात दुआओं में

तुम छत पे नहीं आए, मैं घर से नहीं निकला
ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में

इस शहर में इक लड़की बिल्कुल है ग़ज़ल जैसी
बिजली सी घटाओं में, ख़ुशबू सी हवाओं में

मौसम का इशारा है खुश रहने दो बच्चों को
मासूम मोहब्बत है फूलों की ख़ताओं में

भगवान ही भेजेंगे चावल से भरी थाली
मज़लूम परिन्दों की मासूम सभाओं में

दादा बड़े भोले थे सबसे यही कहते थे
कुछ ज़हर भी होता है अंग्रेज़ी दवाओं में
9.
ख़ुश रहे या बहुत उदास रहे
ज़िन्दगी तेरे आस पास रहे

चाँद इन बदलियों से निकलेगा
कोई आयेगा दिल को आस रहे

हम मुहब्बत के फूल हैं शायद
कोई काँटा भी आस पास रहे

मेरे सीने में इस तरह बस जा
मेरी सांसों में तेरी बास रहे

आज हम सब के साथ ख़ूब हँसे
और फिर देर तक उदास रहे
10.
ख़ुश्बू को तितलियों के परों में छिपाऊँगा
फिर नीले-नीले बादलों में लौट जाऊँगा

सोने के फूल-पत्ते गिरेंगे ज़मीन पर
मैं ज़र्द-ज़र्द शाख़ों पे जब गुनगुनाऊँगा

घुल जायेंगी बदन पे जमी धूप की तहें
अपने लहू में आज मैं ऐसा नहाऊँगा

इक पल की ज़िंदगी मुझे बेहद अज़ीज़ है
पलकों में झिलमिलाऊंगा और टूट जाऊँगा

ये रात फिर न आएगी बादल बरसने दे
मैं जानता हूँ सुबह तुझे भूल जाऊँगा

जब रात के सुपुर्द मुझे करने आओगे
रूमाल रोशनी का हवा में उड़ाऊँगा

आँगन में नन्हें-नन्हें फरिश्ते लड़ेंगे जब
भूरी शफ़ीक़ आँखों में मैं मुस्कराऊँगा

11.
गज़लों का हुनर अपनी आँखों को सिखायेंगे
रोयेंगे बहुत, लेकिन आँसू नहीं आयेंगे

कह देना समन्दर से, हम ओस के मोती हैं
दरिया की तरह तुझ से मिलने नहीं आयेंगे

वो धूप के छप्पर हों या छाँव की दीवारें
अब जो भी उठायेंगे, मिलजुल के उठायेंगे

जब कोई साथ न दे, आवाज़ हमें देना
हम फूल सही लेकिन पत्थर भी उठायेंगे

12.
ग़मों की आयतें शब भर छतों पे चलती हैं
इमाम बाड़ों से सैदानियाँ निकलती हैं

उदासियों को सदा दिल के ताक में रखना
ये मोमबत्तियाँ हैं, फ़ुर्सतों में जलती हैं

रसोई घर में ये अहसास रोज होता है
तिरी दुआओं के पंखे हवायें झलती हैं

अजीब आग है हमदर्दियों के मौसम की
ग़रीब बस्तियाँ बरसात ही में जलती हैं

ये उलझनें भी ज़रूरी हैं ज़िन्दगी के लिये
समन्दर में यूँ ही मछलियाँ मचलती हैं

13.
गुलों की तरह हमने ज़िन्दगी को इस क़दर जाना
किसी की ज़ुल्फ़ में एक रात सोना और बिखर जाना

अगर ऐसे गये तो ज़िन्दगी पर हर्फ़ आयेगा
हवाओं से लिपटना, तितलियों को चूम कर जाना

धुनक के रखा दिया था बादलों को जिन परिन्दों ने
उन्हें किस ने सिखाया अपने साये से भी डर जाना

कहाँ तक ये दिया बीमार कमरे की फ़िज़ा बदले
कभी तुम एक मुट्ठी धूप इन ताक़ों में भर जाना

इसी में आफ़िअत है घर में अपने चैन से बैठो
किसी की सिम्त जाना हो तो रस्ते में उतर जाना

14.
चल मुसाफ़िर बत्तियाँ जलने लगीं
आसमानी घंटियाँ बजने लगीं

दिन के सारे कपड़े ढीले हो गए
रात की सब चोलियाँ कसने लगीं

डूब जायेंगे सभी दरिया पहाड़
चांदनी की नद्दियाँ चढ़ने लगीं

जामुनों के बाग़ पर छाई घटा
ऊदी-ऊदी लड़कियाँ हँसने लगीं

रात की तन्हाइयों को सोचकर
चाय की दो प्यालियाँ हँसने लगीं

दौड़ते हैं फूल बस्तों को दबाए
पाँवों-पाँवों तितलियाँ चलने लगीं
15.
चाँद का टुकड़ा न सूरज का नुमाइन्दा हूँ
मैं न इस बात पे नाज़ाँ हूँ न शर्मिंदा हूँ

दफ़न हो जाएगा जो सैंकड़ों मन मिट्टी में
ग़ालिबन मैं भी उसी शहर का बाशिन्दा हूँ

ज़िंदगी तू मुझे पहचान न पाई लेकिन
लोग कहते हैं कि मैं तेरा नुमाइन्दा हूँ

फूल सी क़ब्र से अक्सर ये सदा आती है
कोई कहता है बचा लो मैं अभी ज़िन्दा हूँ

तन पे कपड़े हैं क़दामत की अलामत और मैं
सर बरहना यहाँ आ जाने पे शर्मिंदा हूँ

वाक़ई इस तरह मैंने कभी सोचा ही नहीं
कौन है अपना यहाँ किस के लिये ज़िन्दा हूँ

16.
जब सहर चुप हो, हँसा लो हमको
जब अन्धेरा हो, जला लो हमको

हम हक़ीक़त हैं, नज़र आते हैं
दास्तानों में छुपा लो हमको

ख़ून का काम रवाँ रहना है
जिस जगह चाहे बहा लो हमको

दिन न पा जाए कहीं शब का राज़
सुबह से पहले उठा लो हमको

दूर हो जाएंगे सूरज की तरह
हम न कहते थे, उछालो हमको

हम ज़माने के सताये हैं बहोत
अपने सीने से लगा लो हमको

वक़्त के होंट हमें छू लेंगे
अनकहे बोल हैं गा लो हमको
17.
ज़ख़्म यूँ मुस्कुरा के खिलते हैं
जैसे वो दिल को छू के गुज़रे हैं

दर्द का चाँद, आँसुओं के नुजूम
दिल के आँगन में आज उतरे हैं

राख के ढेर जैसे सर्द मकाँ
चाँद इन बदलियों में रहते हैं

आईनों का कोई कुसूर नहीं
इन में अपने ही अक़्स होते हैं

ग़ौर से देख ख़ाक तन्हा नहीं
साथ फूलों के रंग उड़ते हैं

कोई बीमार के क़रीब रहो
शाम ही से चराग़ सोये हैं

अलअमा शाइराने ख़स्ता हाल
कितने आशिक़ मिज़ाज होते हैं

अब शबे-हिज़्र भी नहीं आती
इन दिनों हम बहुत अकेले हैं

इन से अहवाले शब सुनो साहब
’बद्र’ जी रात रात घूमे हैं

18.
ज़मीं से आँच ज़मीं तोड़कर निकलती है
अजीब तिश्नगी इन बादलों से बरसी है

मेरी निगाह मुख़ातिब से बात करते हुए
तमाम जिस्म के कपड़े उतार लेती है

सरों पे धूप की गठरी उठाये फिरते हैं
दिलों में जिनके बड़ी सर्द रात होती है

खड़े-खड़े मैं सफ़र कर रहा हूँ बरसों से
ज़मीन पाँव के नीचे कहाँ ठहरती है

बिखर रही है मेरी रात उसके शानों पर
किसी की सुबह मेरे बाज़ुओं में सोती है

हवा के आँख नहीं हाथ और पाँव नहीं
इसीलिए वो सभी रास्तों पे चलती है
19.
जो इधर से जा रहा है वही मुझ पे मेहरबाँ है
कभी आग पासबाँ है, कभी धूप सायबाँ है

बड़ी आरज़ू थी मुझसे कोई ख़ाक रो के कहती
उतर आ मेरी ज़मीं पर तू ही मेरा आसमाँ है

मैं इसी गुमां पे बरसों बड़ा मुतमईन रहा हूँ
तेरा ज़िस्म बेतग़ैयुर मेरा प्यार जाविदाँ है

कभी सुर्ख़ मोमी शम्में वहाँ फिर से जल सकेंगीं
वो लखौरी ईंटों वाला जो बड़ा सा इक मकाँ है

सभी बर्फ़ के मकानों पे कफ़न बिछे हैं लेकिन
ये धुँआ बता रहा है, अभी आग भी यहाँ है

कोई आग जैसे कोहरे में दबी दबी सी चमके
तेरी झिलमिलाती आँखों में अजीब सा समाँ है

इन्हीं रास्तों ने जिन पर कभी तुम थे साथ मेरे
मुझे रोक रोक पूछा तेरा हम-सफ़र कहाँ है
20
तुम ने देखा किधर गये तारे
किसकी आवाज़ पर गये तारे

ये कहीं शहर-ए-आरज़ू तो नहीं
चलते-चलते ठहर गये तारे

कब से है आँख गोद फैलाये
झील में क्यों उतर गये तारे

दूर तक नक़्श-ए-पावे नूर नहीं
जाने किस रह गुज़र गये तारे

उफ़ ये साये अन्धेरे सन्नाटे
जाने किस के नगर गये तारे

आज आसार-ए-सुबह से पहले
वादियों में उतर गये तारे

सहमे-सहमे बुझे-बुझे मग़मूम
सर झुकाये गुज़र गये तारे

’बद्र’ कुछ वाँ की ख़बर भी है तुम्हें
आँचलों पर बिखर गये तारे